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प्रस्तावना

इस विषय[१] पर मैंने जो बीस अध्याय[२] लिखे हैं, उन्हें पाठकोंके सामने रखनेकी मैं हिम्मत करता हूँ।

जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है। बहुत पढ़ा, बहुत सोचा। विलायतमें ट्रान्सवाल डेप्युटेशनके साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिन्दुस्तानियोंके साथ मैंने सोच-विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजोंसे भी मैं मिला। अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकोंके सामने रखना मैंने अपना फ़र्ज समझा।

‘इण्डियन ओपीनियन' के गुजराती ग्राहक आठ सौके करीब हैं। हर ग्राहकके पीछे कमसे कम दस आदमी दिलचस्पीसे यह अखबार पढ़ते हैं, ऐसा मैंने महसूस किया है। जो गुजराती नहीं जानते, वे दूसरोंसे पढ़वाते हैं। इन भाइयोंने हिन्दुस्तानकी हालतके बारेमें मुझसे बहुत सवाल किये हैं। ऐसे ही सवाल मुझसे विलायतमें किये गये थे। इसलिए मुझे लगा कि जो विचार मैंने यों खानगीमें बताये, उन्हें सबके सामने रखना गलत नहीं होगा।

जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतनेकी मैं उम्मीद रखता हूँ; वे मेरी आत्मामें गढे़-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़नेके बाद वे बने हैं। दिलमें भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबोंने समर्थन[३] किया।

यह साबित करनेकी ज़रूरत नहीं कि जो विचार मैं पाठकोंके सामने रखता हूँ, वे हिन्दुस्तानमें जिन पर (पश्चिमी) सभ्यताकी धुन सवार नहीं

२८

  1. मसला।
  2. बाब।
  3. ताईद।