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पश्चिमके असर तले नहीं आये हैं, वे भारतकी धर्म-परायण नैतिक सभ्यताको ही मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्तिका उपयोग करनेका तरीका सिखाया जाय, सत्याग्रहका रास्ता बताया जाय, तो वे पश्चिमी राज्य-पद्धतिका और उससे होनेवाले अन्यायका मुक़ाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबलके बिना भारतको स्वतंत्र करके दुनियाको भी बचा सकेंगे।

पश्चिमका शिक्षण और पश्चिमका विज्ञान अंग्रेजोंके अधिकारके जोर पर हमारे देशमें आये। उनकी रेलें, उनकी चिकित्सा और रुग्णालय, उनके न्यायालय और उनकी न्यायदान-पद्धति आदि सब बातें अच्छी संस्कृतिके लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि विघातक ही हैं-वगैरा बातें बिना किसी संकोचके गांधीजीने इस किताबमें दी हैं।

मूल किताब गुजरातीमें लिखी गयी थी। उसके हिन्दुस्तान आते ही बंबई सरकारने आक्षेपार्ह बताकर उसे जब्त किया। तब गांधीजीने सोचा कि 'हिन्द स्वराज' में मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह जैसाका वैसा अपने अंग्रेजी जाननेवाले मित्रों और टीकाकारोंके सामने रखना चाहिये। उन्होंने स्वयं गुजराती 'हिन्द स्वराज' का अंग्रेजी अनुवाद किया और उसे छपाया। उसे भी बम्बई सरकारने आक्षेपार्ह घोषित किया।

दक्षिण अफ्रीकाका अपना सारा काम पूरा करके सन् १९१५ में गांधीजी भारत आये। उसके बाद सत्याग्रह करनेका जब पहला मौका गांधीजीको मिला, तब उन्होंने बंबई सरकार के हुक्मके खिलाफ 'हिन्द स्वराज' फिरसे छपवाकर प्रकाशित किया। बम्बई सरकारने इसका विरोध नहीं किया। तबसे यह किताब बम्बई सरकारने राज्यमें, सारे भारतमें और दुनियाके गंभीर विचारकोंके बीच ध्यानसे पढ़ी जाती है।

स्व॰ गोखलेजीने इस किताबके विवेचनको कच्चा कहकर उसे नापसन्द किया था और आशा की थी कि भारत लौटनेके बाद गांधीजी स्वयं इस किताबको रद कर देंगे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। गांधीजीने एकाध सुधार करके कहा कि आज मैं इस किताबको अगर फिरसे लिखता, तो उसकी