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हिन्द स्वराज्य


ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसकके लिए तो राह सीधी है। उसे एकको बचानेके लिए दूसरेकी हिंसा करनी ही नहीं चाहिये। उसे तो मात्र चरण-वंदना करनी चाहिये, सिर्फ़ समझानेका काम करना चाहिये। इसीमें उसका पुरुषार्थ[१] है।

लेकिन क्या तमाम हिन्दू अहिंसक हैं? सवालकी जड़में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीवको तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसासे हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करनेसे मालूम होता है कि बहुतसे हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ करना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है। जब ऐसी हालत है तब मुसलमान हिंसक और हिन्दू अहिंसक हैं, इसलिए दोनोंकी नहीं बनेगी, वह सोचना बिलकुल गलत है।

ऐसे विचार स्वार्थी धर्मशिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओंने हमें दिये हैं। और इसमें जो कमी रह गई थी, उसे अंग्रेजोंने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखनेकी आदत है; हरएक जातिके रीति-रिवाज जाननेका वे दंभ[२] करते हैं। ईश्वरने हमारा मन तो छोटा बनाया है, फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आये हैं और तरह तरहके प्रयोग[३] करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मनमें अपनी बात सही होनेका विश्वास जमाते हैं। हम भोलेपनमें उस सब पर भरोसा कर लेते हैं।

जो टेढ़ा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरान शरीफ़में ऐसे सैकड़ों वचन हैं, जो हिन्दुओंको मान्य[४] हो; भगवद्गीतामें ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ़ मुसलमानको कोई भी एतराज नहीं हो सकता। कुरान शरीफ़का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आये, इस वजहसे क्या मैं उसे माननेवालेसे नफ़रत करूं? झगड़ा दोसे ही हो सकता है। मुझे झगड़ा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमानको झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ? हवामें हाथ उठानेवालेका हाथ

  1. बहादुरी।
  2. दिखावा।
  3. आजमाइश।
  4. मंजूर।