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हिन्दुस्तानकी दशा-५


बीचमें न आता तो कुदरत अपना काम करती, मेरा मन मजबूत बनता और अन्तमें निर्विषयी[१] होकर मैं सुखी होता।

अस्पतालें पापकी जड़ हैं। उनकी बदौलत लोग शरीरका जतन कम करते हैं और अनीतिको बढ़ाते हैं|

यूरोपके डॉक्टर तो हद करते हैं। वे सिर्फ़ शरीरके ही गलत जतनके लिए लाखों जीवोंको हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्मको मंजूर नहीं। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जरथोस्ती-सब धर्म कहते हैं कि आदमीके शरीरके लिए इतने जीवोंको मारनेकी ज़रूरत नहीं|

डॉक्टर हमें धर्मभ्रष्ट[२] करते हैं। उनकी बहुतसी दवाओंमें चरबी या दारू होती है। इन दोनोंमें से एक भी चीज़ हिन्दू-मुसलमानको चल सके ऐसी नहीं है। हम सभ्य होनेका ढोंग करके, दुसरोंको वहमी मानकर और बे-लगाम[३] होकर चाहे सो करते रहें; यह दूसरी बात है। लेकिन डॉक्टर हमें धर्मसे भ्रष्ट करते हैं, यह साफ और सीधी बात है।

इसका परिणाम[४] यह आता है कि हम नि:सत्त्व[५] और नामर्द बनते हैं। ऐसी दशामें हम लोकसेवा करने लायक नहीं रहते और शरीरसे क्षीण[६] और बुद्धिहीन[७] होते जा रहे हैं। अंग्रेजी या यूरोपियन डॉक्टरी सीखना गुलामीकी गाँठको मजबूत बनाने जैसा है।

हम डॉक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचनेकी बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमानेका धंधा करनेकी इच्छा है। उसमें परोपकारकी बात नहीं है। उस धन्धेमें परोपकार नहीं है, यह तो मैं बता चुका। उससे लोगोंको नुकसान होता है। डॉक्टर सिर्फ़ आडम्बर दिखाकर ही लोगोंसे बड़ी फीस वसूल करते हैं और अपनी एक पैसेकी दवाके कई रुपये लेते हैं। यों विश्वासमें और चंगे हो जानेको आशामें लोग डॉक्टरोंसे ठगे जाते हैं। जब ऐसा ही है तब भलाईका दिखावा करनेवाले डॉक्टरोंसे खुले ठग-वैद्य (नीम-हकीम) ज्यादा अच्छे।

  1. बे-नन्स-परस्त।
  2. बेदीन।
  3. स्वछन्द।
  4. नतीजा।
  5. जिसमें कुछ दम न हो।
  6. कमज़ोर।
  7. बे-अक़्ल।