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सच्ची सभ्यता कौनसी?


(अपनी असलियतको) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करनेवाला है।

बहुतसे अंग्रेज लेखक लिख गये हैं कि ऊपरकी व्याख्या[१] के मुताबिक हिन्दुस्तानको कुछ भी सीखना बाकी नहीं रहता।

यह बात ठीक है। हमने देखा कि मनुष्यकी वृत्तियाँ[२] चंचल हैं। उसका मन बेकारकी दौड़धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाय वैसे-वैसे ज्यादा माँगता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगनेसे भोगकी इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखोंने भोगकी हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दुःख तो मनके कारण हैं। अमीर अपनी अमीरीकी वजहसे सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबीके कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखनेमें आता है और गरीब सुखी देखनेमें आता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोगकी वासना[३] छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काममें लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा[४] थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़को समाजमें जगह नहीं दी; सब अपना अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूरके मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैराकी खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजोंने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैराकी झंझटमें पड़ेंगे, तो गुलाम बनेंगे और अपनी नीतिको छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरोंसे जो काम हो सके वही करना चाहिये। हाथ-पैरोंका इस्तेमाल करनेमें ही सच्चा सुख है, उसीमें तन्दुरुस्ती है।

उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकारकी झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों[५]की टोलियां और वेश्याओंकी[६] गलियां पैदा होंगी; गरीब अमीरोंसे लूटे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातोंसे संतोष माना।

  1. तशरीह।
  2. भावनाएं-जज्बे।
  3. ख़्वाहिश।
  4. तालीम।
  5. ठगों।
  6. बेसवाओं।