पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१०

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हिन्दू धर्म
 

प्रत्येक विकारशील पदार्थ तो मिश्रित होता है और हरएक मिश्रित पदार्थ में वह परिवर्तन जिसे कि विनाश कहते हैं, अवश्यम्भावी ही है। इस तरह तो ईश्वर की मृम्यु हो जायेगी जो कि सर्वथा असम्भव एवं हास्यास्पद कल्पना है। अतः ऐसा समय कभी नहीं था,कुछ भी अर्थात् यह सृष्टि नहीं थी। अतएव यह सृष्टि अनादि है।

यदि मैं कोई उपमा दूं तो स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि है, न अन्त और वे परस्पर समानान्तर भी हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील महा-शक्ति है, सर्व विधाता है जिसकी प्रेरणा से प्रलय-पयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन हुआ करता है, जिनका कुछ काल तक पालन होता है और तत्पश्चात् वे विनष्ट कर दिये जाते हैं।" सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथार्वभकल्पयत् " अर्थात् इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्माण किया है- इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्यक हिन्दू बालक प्रति दिन अपने गुरु के साथ किया करता है। और यही सिद्धान्त आधुनिक वैज्ञानिकों का भी है।

यहाँ पर मैं खड़ा हूँ। अपनी आँखें बंद करके यदि मैं अपने अस्तित्व के समझने का प्रयत्न करूँ कि मैं क्या हूँ-मैं, मैं, मैं'-तो मुझमें किस भाव का उदय होता है ? यह शरीर ही मैं हूँ-इस भाव का। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के समूह के सिवाय और कुछ नहीं हूँ? वेदों की घोषणा है-नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायेगा, पर मैं नहीं मरूँगा! मैं इस शरीर