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हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 

सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, निराकार विभु है और वह निरन्तर प्रकृति द्वारा क्रियाशील है। वह सम्पूर्ण प्रकृति उसी के वश में है। वही नित्य विधाता है। द्वैतवादियों का यही मत है। तब यह प्रश्न उठता है कि यदि इस सृष्टि का विधाता ईश्वर है, तो उसने इस प्रकार की दुष्ट सृष्टि की उत्पत्ति क्यों की? हमें इतना कष्ट क्यों भोगना पड़ता है? वे कहते हैं, यह ईश्वर का अपराध नहीं है। हम अपने दोष के कारण कष्ट भोगते हैं। हम जो बोते हैं, वही लूते हैं। हमें दण्ड देने का उसका अभिप्राय नहीं है। मनुष्य दरिद्र, अंधा या और कोई दोषयुक्त जन्म लेता है इसका कारण क्या है? उसने इस प्रकार के जन्म लेने के पूर्व कुछ किया था। जीव नित्य काल से रहा आया है, वह कभी उत्पन्न नहीं किया गया था। वह सर्वदा कई प्रकार के कर्म करता रहा है, हम जो कुछ करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया हम पर होती है। अगर हम शुभ कर्म करते है, तो हमें सुख मिलेगा और अशुभ कर्म करते हैं, तो दुःख मिलेगा। इसी प्रकार जीव सुख और दुःख प्राप्त करता जाता है और भिन्न भिन्न प्रकार के सब कर्म करता जाता है।

मृत्यु के उपरान्त क्या होता है? सभी वेदान्तमतवादी स्वीकार करते हैं कि यह जीव स्वभावतः ही पवित्र है; परन्तु वे कहते हैं कि अज्ञान से इसका सच्चा स्वरूप ढँका हुआ है। जिस प्रकार अशम कों से इसने अपने को अज्ञान के आवरण में ढाँक लिया है, उसी प्रकार शुभ कर्मों द्वारा यह अपने असली स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता

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