पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१०३

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हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 

यदि तुम कहते हो कि तुम ईश्वर हो, तो यह ईश्वर की घोर निंदा है। उत्पत्ति करने की शक्ति के सिवाय अन्य सभी शक्तियाँ जीव को प्राप्त हो जाती हैं और यदि जीव शरीर धारण करके संसार के विभिन्न भागों में कार्य करना चाहे, तो कर सकता है। यदि वह जीव सभी देवताओं को अपने सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा दे अगर वह अपने पूर्वजों को, बुलाना चाहे, तो वे सभी उसकी आज्ञा के अनुसार आ जाते हैं। उसकी शक्तियाँ ऐसी रहती हैं कि उसे अब कोई दुःख नहीं होता और यदि वह चाहे तो अनन्त काल ब्रह्मलोक में निवास कर सकता है। यही वह उच्चगति-प्राप्त पुरुष है, जो ईश्वर के प्रेम को प्राप्त कर चुका है, जो पूर्णतः निःस्वार्थ, पूर्णतः शुद्ध बन गया है, जिसने अपनी समस्त वासनाओं का परित्याग कर दिया है और जो ईश्वर की पूजा और उसके प्रति अनुराग करने के सिवाय और कुछ नहीं करना चाहता। दूसो और भी ऐसे हैं, जो इतनी उच्च अवस्था को नहीं पहुँचे हैं; जो सत्कार्य करते हैं, परन्तु बदले में कुछ पाना चाहते हैं। वे कहते हैं कि गरीबों को वे इतना दान करेंगे, पर बदले में वे स्वर्ग को जाना चाहते हैं। जब वे मरते हैं, तो उनकी कौन सी गति होती है? वाचा-शक्ति मन में प्रविष्ट हो जाती है, मन प्राण में और प्राण जीव में प्रवेश करता है। जीव निकल कर चन्द्रलोक को जाता है और वहाँ वह दीर्घकाल तक बहुत सुख में रहता है। जब तक उसके पुण्य कर्मों का प्रभाव बना रहता है, तब तक वहाँ वह

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