पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१०६

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हिन्दू धर्म
 


नीच योनियों से विकास प्राप्त करते समय जीव कुछ काल तक पशु-योनि में रहता है, और समय पाकर पशु मनुष्य बन जाता है। जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे ही वैसे पशुओं की घट रही है यह बात सार्थक है। पशु-आत्माएँ सब मनुष्य बन रही हैं। पशुओं के बहुतेरे वर्ग पहले ही मनुष्य बन चुके हैं; अन्यथा वे कहाँ चले गये?

वेदों में नरक की कोई चर्चा नहीं है, पर हमारे पुराणों में, जो धर्म में उनके बाद के ग्रंथ हैं, यह विचार आया कि नरकों का सम्बन्ध जोड़े बिना कोई धर्म सर्वागीण नहीं हो सकता। अतः सभी प्रकार के नरकों की कल्पना की गई। इन नरकों में से कुछ में तो मनुष्यों को चीरकर उनके दो टुकड़े कर दिये जाते हैं और उन्हें कुचल कुचल कर कष्ट दिया जाता है, तो भी वे नहीं मरते। वहाँ उनको लगातार अत्यन्त दुःख पहुँचाया जाता है, पर ये ग्रंथ इतना कहने की दया तो करते हैं कि यह सब केवल कुछ काल के लिये ही रहता है। उस अवस्था में दुष्कर्मों का फल भोग लिया जाता है और भोग पूर्ण होने पर पुनः पृथ्वी पर आकर नया अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार यह मनुष्य शरीर महान् अवसर है। यह शरीर कर्मयोनि कहलाता है जहाँ हम अपने भाग्य का निर्णय करते हैं। हम एक महान् वृत्त में दौड़ रहे हैं और उस वृत्त में यही एक बिन्दु है, जो हमारे भविष्य का निर्णायक है। अतः यह मनुष्य-शरीर ही सबसे बढ़कर समझा जाता है। मनुष्य देवों से भी बढ़कर है।

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