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हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 


यहाँ तक हुआ शुद्ध और सरल द्वैतवाद। इसके पश्चात् उच्चतर वेदान्त तत्वज्ञान सामने आता है। उसका कहना है कि ऐसा नहीं हो सकता। इस विश्व का उपादान कारण तथा निमित्त कारण दोनों ईश्वर ही है। यदि आप कहते हैं कि ईश्वर एक अनन्त व्यक्ति है, जीवात्मा भी अनन्त है और प्रकृति भी अनन्त है, तब आप इन अनन्तों की संख्या अमर्याद बढ़ा रहे हैं। यह तो बिलकुल असम्भव बात है। आप तर्कशास्त्र का विध्वंस कर रहे हैं। अतः ईश्वर ही इस विश्व का उपादान तथा निमित्त दोनों प्रकार का कारण है। वह इस विश्व को अपने में से ही बाहर प्रकट करता है। तब यह कैसी बात है कि ईश्वर ही ये दीवालें और यह मेज बन गया है, ईश्वर ही शूकर, हत्यारा और जो कुछ इस संसार में नीच तथा क्षुद्र वस्तुएँ हैं, वह सब बन गया है। हम तो कहते हैं कि ईश्वर पवित्र है। तब वह इन सब नीच वस्तुओं के रूप में अधःपतित कैसे हो सकता है? हमारा उत्तर यह है कि ठीक वैसे ही जैसे हम आत्मा है और हमारा शरीर है, और एक दृष्टि से तो यह शरीर मुझसे भिन्न नहीं है, तो भी मैं—सच्चा मैं—यथार्थ में शरीर नहीं हूँ। उदाहरणार्थ—मैं कहता हूँ मैं बालक हूँ, युवक हूँ या वृद्ध हूँ, पर मेरी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। आत्मा तो वही बनी रहती है। उसी प्रकार समस्त विश्व-जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति और असंख्य आत्माएँ हैं—मानो ईश्वर का अनन्त शरीर है। वह उस सम्पूर्ण विश्व में ओतप्रोत है। वहीं अकेला अपरिवर्तनशील है, पर प्रकृति तो बदलती रहती है

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