पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१०८

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हिन्दू धर्म
 

और आत्माएँ भी। प्रकृति और जीवात्मा के परिवर्तन का उस ईश्वर पर कोई परिणाम नहीं होता। प्रकृति किस प्रकार बदलती है? अपने रूपों में; वह नये नये रूप धारण करती है। पर आत्मा उस तरह नहीं बदलती। आत्मा ज्ञान की न्यूनाधिकता से ही घटती

और बढ़ती है। दुष्कर्मों से आत्मा संकुचित हो जाती है। ऐसे कर्म जो यथार्थ में स्वामाविक ज्ञान को तथा आत्मा की पवित्रता को घटाते हैं दुष्कर्म कहे जाते हैं। पुनश्च ऐसे कर्म जो आत्मा की स्वाभाविक माहिमा को प्रकट करते हैं, सस्कर्म कह जाते हैं। ये सभी आत्माएँ शुद्ध थीं पर वे संकुचित हो गई हैं; ईश्वर की दया से और सत्कर्म करने से वे पुनः विकसित होकर अपनी सहज शुद्धता को प्राप्त कर लेंगी। हरएक को वह अवसर प्राप्त है और अन्त में प्रत्येक का उद्धार होना निश्चित है, पर इस विश्व का अन्त नहीं होगा, क्योंकि वह तो अनन्त है। यह दूसरा मत है। पहला मत द्वैतवाद कहा जाता है। दूसरे मत में यह धारणा है कि ईश्वर, आत्मा और प्रकृति हैं, तथा आत्मा और प्रकृति ईश्वर के शरीर हैं और इसी कारण ये तीनों मिलकर एक ही सत्ता है। इससे आध्यात्मिक विकास की उच्चतर अवस्था सूचित होती है और इसका नाम है 'विशिष्टाद्वैत'। द्वैतवाद में विश्व ईश्वर-संचालित एक बड़ा यंत्र माना गया है और विशिष्टाद्वैत में यह एक ऐसा शरीर माना गया है, जिसके अन्तर में परमात्मा प्रविष्ट है।

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