पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 


सबसे अन्त में अद्वैतवादी हैं। वे भी यह प्रश्न उठाते हैं कि ईश्वर ही इस विश्व का उपादान कारण तथा निमित्त कारण दोनों ही होना चाहिये। ऐसा होने पर तो, ईश्वर ही यह सम्पूर्ण विश्व बन गया है और यह अस्वीकार करने की कोई भी गुंजाइश नहीं है। जब ये दूसरे लोग कहते हैं कि ईश्वर आत्मा है और विश्व उसका शरीर है और शरीर परिवर्तनशील है, पर ईश्वर में परिवर्तन नहीं होता तो ये सब बातें अद्वैतवादी के मत में निरी अज्ञता है, क्योंकि यदि वैसा ही हो, तो फिर ईश्वर को इस विश्व का उपादान कारण कहने का क्या अर्थ है? उपादान कारण तो यह है कि कारण ही कार्य बन जाता है; कार्य और कुछ नहीं होता, वह तो कारण का ही दूसरा रूप है। जहाँ कहीं तुम्हें कार्य दिखाई देता है, वह कारण की ही पुनरावृत्ति है। अगर विश्व कार्य है और ईश्वर कारण है तो वह विश्व ईश्वर की ही पुनरावृत्ति होनी चाहिये। यदि तुम कहो कि यह विश्व ईश्वर का शरीर है और शरीर संकुचित होकर सूक्ष्म होता है और कारण बन जाता है और उसी में से इस विश्व का विकास होता है तो अद्वैतवादी कहते हैं कि स्वयं ईश्वर ही यह विश्व बन गया है। अब यहाँ एक बहुत सूक्ष्म प्रश्न उठता है। यदि यह ईश्वर ही यह विश्व बन गया है तो तुम और ये सभी चीजें ईश्वर हैं। हाँ, यथार्थ में वैसा ही है। यह पुस्तक ईश्वर है, प्रत्येक वस्तु ईश्वर है। मेरा शरीर ईश्वर है और मेरा मन ईश्वर है और मेरी आत्मा ईश्वर है। तब फिर जीवों का यह नानात्व क्यों है? क्या ईश्वर

१०५