पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१११

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हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 

प्रकट करते हैं और प्रत्येक बुलबुले में सूर्य का पूर्ण प्रतिबिम्ब रहता है तथापि वास्तव में सूर्य तो एक ही है। इसी प्रकार ये सब जीव भिन्न भिन्न मनों में प्रतिविम्ब ही हैं। ये भिन्न भिन्न मन अनेकों बुलबुलों के समान उसी एक आत्मा को प्रतिबिम्बित करते हैं। ईश्वर इन सब भिन्न भिन्न जीवों में प्रतिबिम्बित हो रहा है। पर स्वप्न तो सत्य वस्तु के बिना नहीं हो सकता और वह सत्य वस्तु वही एक अनंत सत्ता है। तुम शरीर, मन या जीवात्मा के रूपों में तो स्वप्नमय हो, पर यथार्थ में तुम तो वही सत् चित् और आनंद हो। तुम इस विश्व के ईश्वर हो। तुम सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न कर रहे हो और अपने में लय कर रहे हो—अद्वैतवादियों का यही सिद्धान्त है। अतः ये सब जन्म और पुनर्जन्म, आना और जाना, सभी माया के दृश्य हैं। तुम अनंत हो। तुम कहाँ जा सकते हो? सूर्य, चंद्र और समस्त विश्व तुम्हारे निर्विकल्प स्वरूपसागर के केवल बिंदुमात्र हैं। तुम्हारा जन्म और मरण कैसे हो सकता है? मैं कभी जन्म नहीं लिया, कभी न लूंगा, मेरे न कभी पिता थे, न माता ही, न मित्र, न शत्रु; क्योंकि मैं तो सत् चित आनन्द स्वरूप हूँ। सोऽहम् सोऽहम्।

तब इस दार्शनिक मत के अनुसार आन्तम ध्येय क्या है? वह यही है कि जो यह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे विश्व के साथ एक हो जाते हैं। उनके लिये सभी स्वर्ग और ब्रह्मलोक भी विनष्ट हो जाते हैं, सारा स्वप्न दूर हो जाता है और वे अपने को विश्व का

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