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हिन्दू धर्म
 

अनादि अनंत ईश्वर पाते हैं। वे अपने यथार्थ व्यक्तित्व को उसके, अनंत ज्ञान और आनंद के साथ प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। क्षुद्र वस्तुओं के सुख का अन्त आ जाता है। हम इस छोटे से शरीर और क्षुद्र व्यक्तित्व में ही आनंद मानते हैं। वह आनंद कितना अधिक होगा, जब कि यह समस्त विश्व मेरा शरीर है! यदि एक शरीर में सुख है तो जब सभी शरीर मेरे हैं तो कितना अधिक सुख होगा! तब तो मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यही अद्वैत वेदान्त का चरम सिद्धान्त है।

वेदान्त दर्शन शास्त्र ने ये ही तीन श्रेणियाँ निर्धारित की हैं और हम उससे आगे नहीं बढ़ सकते; क्योंकि हम एकाव के परे कैसे जा सकते हैं। जब कोई विज्ञान-शास्त्र एकस्व तक पहुँच जाता है, तब वह किसी भी प्रकार के उपाय से और आगे नहीं बढ़ सकता। इस निरपेक्ष सत्ता या तुरीय के परे आप जा नहीं सकते।

इस अद्वैत दर्शन-शास्त्र को सभी मनुष्य ग्रहण नहीं कर सकते। वह अत्यन्त सूक्ष्म है। सबसे पहले तो वह बुद्धि द्वारा समझने के लिये बहुत कठिन है। उसके लिये अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि चाहिये, साहस चाहिये। दूसरी बात यह है कि वह अधिकांश जनसमुदाय के अनुकूल नहीं है। अतः यही तीन श्रेणियाँ हैं। प्रथमः श्रेणी से आरम्भ करो। तब तो उसको अच्छी तरह सोच विचार कर समझ लेने पर द्वितीय श्रेणी आप से आप खुल जायगी। जैसे एक

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