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५. हिन्दू धर्म और उसके चार योग


मानव जाति के अधिक से अधिक अंश को सन्तुष्ट करने के लिये धर्म का स्वरूप ऐसा होना चाहिये कि वह इन विभिन्न प्रकार के मनों को खाद्य-सामग्री प्रदान कर सके; और वे सभी वर्तमान पंथ, जिनमें ऐसी योग्यता का अभाव है एकदेशीय हो जाते हैं। मान लीजिये कि आप एक ऐसे पंथवाले के पास गये जिसमें प्रेम और भाव का उपदेश दिया जाता है। वे गाते हैं, रोते हैं और प्रेम का उपदेश देते हैं। पर ज्योंही आप कहते हैं, "मित्रवर, यह सब तो ठीक है; पर मुझे तो इससे कोई अधिक प्रबल वस्तु चाहिये; कुछ थोड़ा तर्क और तस्वज्ञान हो; मैं सब बातों को क्रमशः और कुछ युक्तिपूर्वक समझना चाहता हूँ" तो वे कहते हैं—"चलो जाओ।" और वे आपको चले जाने के लिये ही नहीं कहेंगे, पर यदि उनके वश की बात हो, तो वे आपको दूसरी जगह भेज देंगे। परिणाम यही होता है कि वे पंथवाले केवल भावनाप्रधान लोगों को सहायता दे सकते हैं और इतना ही नहीं कि वे अन्य लोगों को सहायता नहीं देते, वरन् उनको नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। सबसे बढ़कर दुष्टता तो यह है कि वे दूसरों को सहायता तो देंगे ही नहीं, पर साथ ही उनकी आन्तरिकता में भी विश्वास नहीं करेंगे। पुनश्च ऐसे तत्वज्ञानी भी हैं जो भारत का और पूर्वीय देशों के ज्ञान का बखान करेंगे और बड़े बड़े पचास पचास अक्षरों के

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