पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हिन्दू धर्म और उसके चार योग
 

ओर प्रेरणा करने वाला हो। यदि कालेज के अध्यापकगण, वैज्ञानिक और भौतिक शास्त्रवेत्ता पहुँचेंगे, तो वे तो बुद्धिवाद चाहेंगे। जी भरकर उन्हें वही ले लेने दो। एक ऐसी अवस्था आएगी जब वे सोचेंगे कि वे उसके परे, बुद्धि के बांध को तोड़े बिना नहीं जा सकते। वे कहेंगे, "ईश्वर और मुक्ति के सम्बन्ध के ये विचार मिथ्या कल्पनाएँ हैं। इन्हें छोड़ो।" मैं कहता हूँ, "दर्शनशास्त्रीजी, आपका यह शरीर तो उससे बढ़कर मिथ्या कल्पना है, उसी को आप छोड़ दीजिये। भोजन के लिये घर जाना या दर्शनशास्त्र पढ़ाने जाना बंद कर दीजिये। शरीर को त्याग दीजिये और यदि वैसा नहीं कर सकते, तो चिल्लाना छोड़कर चुपचाप बैठ जाइये।" क्योंकि धर्म का कार्य है कि 'यह सृष्टि एक है', 'विश्व में केवल एक ही सत्ता है' ऐसी शिक्षा देने वाले दार्शनिक सिद्धान्त का प्रत्यक्ष अनुभव करने का मार्ग दिखाये। उसी प्रकार जब राजयोगी आये, तब उसका भी हमें स्वागत करना चाहिये। उसे मनोविश्लेषण शास्त्र का पाठ पढ़ाने के लिये और उसके सामने तदनुसार प्रत्यक्ष प्रयोग करके दिखाने के लिये तैयार रहना चाहिये। यदि भावना-प्रधान मनुष्य आयें, तो हमें उनके साथ बैठकर ईश्वर का नाम लेकर हसना और रोना चाहिये और "प्रेम का प्याला पीकर पागल बन जाना चाहिये।" यदि उत्साही कार्यकर्ता आ जाय तो हमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उसके साथ कर्म करना चाहिये। इस प्रकार का संयोग प्राप्त होने पर हम सार्वभौमिक धर्म के आदर्श के अत्यन्त निकट पहुँच जायँगे। ईश्वर सभी मनुष्यों को इस प्रकार बनाये कि उनके चित्त में ज्ञान, भक्ति, योग तया कर्म

११३