पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/११८

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हिन्दू धर्म
 

का भाव पूर्ण मात्रा में और समान रूप में वर्तमान हों। यही आदर्श है। पूर्ण मनुष्य का मेरा आदर्श यही है। जिनके स्वभाव में इनमें से केवल एक या दो ही तस्व विद्यमान हों उन्हें मैं "एकांगी" समझता हूँ और संसार प्रायः ऐसे ही एकांगी व्यक्तियों से भरा है। वे जिस मार्ग में चलते हैं, उस एक ही मार्ग का उन्हें ज्ञान है और अन्य मार्गों को वे भयंकर और बीभत्स समझते हैं। इन सभी चारों मार्गों का समतोल संयोग रहे—यही धर्म का 'मेरा' आदर्श है। और इस धर्म की प्राप्ति जिसे हम भारत में 'योग' कहते हैं, उसके द्वारा होती है। कर्मी के लिये इस 'योग' का अर्थ है व्यष्टि और समष्टि की एकता या अभेद। राजयोगी के लिये 'योग' का अर्थ है जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता या अभेद। भक्त के लिये अपनी और अपने प्रेमास्पद ईश्वर की अभिन्नता ही 'योग' है; और ज्ञानी के लिये 'योग' का अर्थ है अस्तित्व मात्र का ऐक्य। 'योग' का यही अर्थ है। योग संस्कृत शब्द है और इसके इन चार विभागों के संस्कृत में भिन्न-भिन्न नाम हैं। इस प्रकार की एकता के लिये प्रयत्नशील मनुष्य 'योगी' कहलाता है। कर्म करने वाला कर्मयोगी कहलाता है। प्रेम के मार्ग से जो योग प्राप्त करना चाहता है, वह भक्तियोगी है; राजयोग से जो उसे खोजता है, वह राजयोगी है; और जो ज्ञानमार्ग से उसका शोध करता है, वह ज्ञानयोगी कहलाता है। इस प्रकार योगी शब्द में सभी का समावेश होता है।

अब मैं सब से पहले राजयोग को लेता हूँ। यह राजयोग—मन का यह संयमन—क्या है? आपके इस देश में योग शब्द के

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