पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१२

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हिन्दू धर्म
 


स्पष्ट ही है कि यह कल्पना तर्क विरुद्ध है। अतएव यह स्वीकार करना ही होगा कि इस जन्म के पूर्व के ऐसे कारण होने ही चाहिये जिनके परिणाम में वह व्यक्ति इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करता है। और ये कारण हैं उसके ही पूर्वानुष्ठित कर्म।

अच्छा, मनुष्य की देह तथा मन उसके पितृ-पितामहादि की देह तथा मन के साथ सादृश्य रखते हैं, ऐसा कहने में क्या उपर्युक्त समस्या का समुचित उत्तर न होगा? यह स्पष्ट है कि जीवनस्रोत जड़ और चैतन्य इन दो धाराओं में प्रवाहित हो रहा है। यदि जड़ और जड़ के विकार ही आत्मा, मन, बुद्धि आदि हम जो कुछ हैं उसके उपयुक्त कारण सिद्ध हो सकते तो फिर और स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य शक्ति का विकास जड़ से हुआ है। अतएव यह स्वीकार कर लेने पर कि एक जड़ पदार्थ से सब कुछ सृष्ट हुआ है, यह भी स्वीकार करना निःसंशय युक्तियुक्त होगा कि एक मूल चैतन्य से ही समस्त सृष्टिकार्य का निर्वाह हो रहा है। और यह केवल युक्तियुक्त ही नहीं वरन् वांछनीय भी है। पर यहाँ उसकी आलोचना करने की कोई आवश्यकता नहीं।

अवश्य, यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कुछ शारीरिक प्रवृत्तियाँ माता-पिता से प्राप्त होती हैं, पर इसका सम्बन्ध तो केवल शारीरिक गठन से ही है, जिसके द्वारा जीवात्मा की कोई विशेष प्रवृत्ति प्रकट हुआ करती है। उसके इस प्रवृत्तिविशेष का