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हिन्दू धर्म और उसके चार योग
 

रखना चाहिये कि भावनाप्रधान प्रकृति वाले सत्य की शुष्क परिभाषाओं की परवाह नहीं करते। उनके लिये ईश्वर तो एक मूर्त वस्तु है और वही एक मात्र सत् है। वे उसका अनुभव करते हैं, उसकी बात श्रवण करते हैं, उसे देखते हैं और उस से प्रेम करते हैं। वे अपने ईश्वर को रखे रहें। आपका तर्कवादी उनको उस मूर्ख के समान जंचता है जो एक सुंदर मूर्ति को देखकर यह जानने के लिये उसे तोड़ना चाहता है कि वह मूर्ति किस द्रव्य की बनी है। भक्तियोग उन्हें यही सिखाता है कि बिना किसी स्वार्थयुक्त उद्देश के ईश्वर से किस तरह प्रेम करना चाहिये ईश्वर से प्रेम के लिये ही प्रेम करना चाहिये और ईश्वर से प्रेम इसलिये करना चाहिये क्योंकि ऐसा करना अच्छी बात है। स्वर्ग पाने के लिये या सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिये नहीं। वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़कर बदला प्रेम ही है, और स्वयं ईश्वर प्रेमखरूप है। वह उन्हें ईश्वर के प्रति उसे सृष्टिकर्ता सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान् शासक, पिता और माता जानकर हर प्रकार के गुण अर्पित करना सिखाता है। सबसे बढ़कर वाक्य जो ईश्वर का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन ईश्वर के विषय में ग्रहण कर सकता है, वह यही है कि परमेश्वर प्रेमस्वरूप है। जहाँ कहीं प्रेम है वहाँ परमेश्वर है। "जहाँ कहीं प्रेम है, वहाँ वह है, वहाँ ईश्वर विद्यमान है।" जब पति पत्नी का चुम्बन करता है, तो वहाँ उस चुम्बन में वह ईश्वर है। माता बच्चे को चूमती है, उस चुम्बन में

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