पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१२८

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हिन्दू धर्म
 

भी ईश्वर है। जब दो मित्र हाथ मिलाते हैं तब वहाँ परमात्मा प्रेममय ईश्वर के रूप में विद्यमान है। जब एक महान् व्यक्ति प्रेम करता है और जब वह मानव जाति की सहायता करना चाहता है, तब वह ईश्वर अपना दान मुक्तहस्त होकर मानव जाति के प्रति अपने प्रेम के कारण देता है। जब कभी हृदय खिलता है, तब वह ईश्वर वहाँ प्रकट होता है—यही भक्तियोग की शिक्षा है।

अन्त में हम ज्ञानयोग का विषय लेते हैं। ज्ञानयोगी दार्शनिक है, विचारशील है और दृश्य जगत् के परे जाने का इच्छुक है। वह इस संसार की छोटी छोटी वस्तुओं से सन्तुष्ट होने वाला मनुष्य नहीं है। उसकी धारणा है कि खानपान आदि दैनिक जीवन के परे जाना होगा। सहस्रों ग्रंथों की शिक्षा से भी उसे सन्तोष नहीं है। समस्त विज्ञानशास्त्र भी उसे सन्तुष्ट नहीं कर सकते। अधिक से अधिक ये शास्त्र उसके सामने इस छोटे से संसार को ही ला सकते हैं। तब फिर कौनसी दूसरी वस्तु उसे सन्तोष देगी? करोड़ों विश्व-ब्रह्माण्ड भी उसके सन्तोष के कारण नहीं बन सकते; वे तो उसके लिये सत्ता के समुद्र में केवल एक बिन्दुक्त हैं। उसकी आत्मा उन सबके परे, सत्य को ठीक जैसा वह है वैसा ही देखकर, उस सस्य का अनुभव करके,—वह सत्य बनकर, उस सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक होकर, उसके वास्तविक स्वरूप में प्रवेश करना चाहती है। वही तो दार्शनिक है; यह कहना कि ईश्वर पिता है या माता है, इस विश्व का स्रष्टा, उसका रक्षक और गुरु है

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