पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१३

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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

कारण उसके ही पूर्वकृत कर्म हुआ करते हैं। और किसी विशेष प्रवृत्ति वाली आस्मा 'योग्यं योग्येन युज्यते'-* इस नियम के अनुसार वैसे ही शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिये सब से उपयुक्त आधार हो सके । यह बात पूर्ण- तथा विज्ञान-संगत है; क्योंकि विज्ञान तो प्रत्येक प्रवृत्ति का कारण अभ्यास द्वारा प्राप्त स्वभाव को ही बताती है और अभ्यास तो बारंबार अनुष्ठान का ही फल है । इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिये पुनःपुनः अनुष्ठित पूर्वकमों को मानना आवश्यक हो जाता है। और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव का अभ्यास नहीं किया गया है, इसलिये वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।

इस पर एक शंका की जा सकती है। ये सभी बातें तो ठीक मान ली गई, पर यह कैसी बात है कि मेरे पूर्व जन्म की कोई बात मुझे स्मरण नहीं है ? इसका समाधान तो बहुत सरल है। मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ। वह तो मेरी मातृभाषा नहीं है। सच पूछो तो इस समय मेरी मातृभाषा के कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं; पर उन शब्दों को सामने लाने का थोडा प्रयत्न करते ही वे मेरे मन में उमड़ आते हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि मानस-समुद्र की सतह पर जो कुछ तैरता है वही हमें बोधगम्य हुआ करता है। और भीतर उसकी गहराई में हमारी

  • योग्य वस्तु योग्य वस्तु के साथ युक्त होती है।