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हिन्दू धर्म और उसके चार योग
 

इस संसार के मधुर और कटु फलों का भक्षक जीवात्मा है। जब आत्मा पर कठोर आघात होता है तो कुछ समय के लिये वह फल खाना बंद करके उस अज्ञात ईश्वर की ओर बढ़ता है और प्रकाश की बाढ़ सामने आती है। तब वह सोचता है कि यह संसार मिथ्या दृश्य है। फिर भी इन्द्रियाँ उसे नीचे खींच लाती हैं और वह पूर्ववत् संसार के मीठे और कडुए फलों को खाना आरम्भ कर देता है। पुनः उसे अत्यन्त दुःसह दुःख का आघात प्राप्त होता है। उसका हृदय ईश्वरी प्रकाश के लिये पुनः खुल जाता है। इस प्रकार वह क्रमशः ईश्वर की ओर आने लगता है और अधिकाधिक समीप पहुँच जाता है, तब वह अपनी पुरानी आत्मा को पिघलते हुए पाता है। जब वह अत्यन्त समीप आ जाता है, तब वह देखता है कि वह स्वयं ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और कह उठता है, "मैंने तुम्हारे समक्ष जिसे इस विश्व का प्राण, प्रत्येक अणु में तथा सूर्यों और चन्द्रों में वर्तमान बताकर वर्णन किया है, वही ईश्वर हमारे जीवन का आधार है, हमारी आत्मा की आत्मा है; नहीं, तुम ही वह हो—तत्त्वमसि।"[१] यही शिक्षा ज्ञानयोग देता है। वह मनुष्य को यह बताता है कि वह स्वरूपतः ब्रह्म ही है। वह मानव जाति को सत्ता की यथार्थ एकता दिखलाता है और यह सिखाता है कि हममें से प्रत्येक स्वयं प्रभु ईश्वर ही पृथ्वी पर प्रकट हुआ है। हम सभी, हमारे पैरों के नीचे रेंगने वाले अति क्षुद्र कीट से लेकर, हम


  1. सर एषोऽणिमा ऐतदात्ममिदं सर्वे तत्सत्यं स आत्मां तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति।

    —छांदोग्य उपनिषद्, ६।७।८

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