पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१६

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हिन्दू धर्म
 

ईश्वर की इच्छा है यह उत्तर इस शंका का कोई समाधान नहीं हो सकता। यह उत्तर तो हिन्दू के "मैं नहीं जानता" उत्तर से किसी प्रकार अधिक यथार्थ नहीं है।

अतएव यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर है, पूर्ण और अनन्त है, और मृत्यु का अर्थ है,एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान हमारे ही पूर्वानुष्ठित कमों द्वारा निश्चित होता है और भविष्य वर्तमान कर्मों द्वारा ।और प्रगत या दुर्गत होती हुई यह आत्मा जन्म और मृत्यु में लगातार घूमती रहेगी। पर यहाँ दूसरा प्रश्न यह उठता है-क्या मनुष्य उस छोटी सी नौका के समान है, जो प्रचण्ड तूफान में पड़कर एक क्षण किसी वेगवान् तरंग के फेनमय शिखर पर चढ जाती है और दूसरे क्षण भयानक गड्ढे में नीचे ढकेल दी जाती है- मनुष्य क्या इस प्रकार अपने अच्छे और बुरे कर्मों। के नितान्त परवश होकर केवल इधर-उधर भटकता फिरता है-क्या वह कार्य-कारण के सततप्रवाही, सर्वकष, भीषण तथा गर्जनशील प्रवाह में पड़ा हुआ शक्तिहीन निस्सहाय नगण्य जीव है ?-पतिशोक से व्याकुल विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी परवाह न करते हुए अपने मार्ग की सभी वस्तुओं को कुचल डालने वाले कर्म-चक्र में पड़कर कुचला जाने वाला कीटाणु ही क्या मनुष्य है ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण तो काँप उठता है, पर प्रकृति का नियम तो यही है। तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं

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