पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१७

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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

है। इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है?–यही करुण पुकार निराशा-विह्वल हृदय के अन्तस्तल से ऊपर उठी और उस करुणानिधान विश्वपिता के सिंहासन तक जा पहुँची। वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और एक वैदिक ऋषि के अन्तःकरण में प्रेरणा रूप में आविर्भूत हुई। ईश्वरी शक्ति द्वारा अनुप्राणित इस महर्षि ने संसार के सामने खड़े होकर घन-गम्भीर स्वर से इस आनन्द-संदेश की घोषणा की–"ऐ अमृत के पुत्रगण, ऐ दिव्य धामवासी देवगण, सुनो–मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को पहिचान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अंधकार और माया के परे है, केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्कर से छूट सकते हो।[१] अन्य कोई पथ नहीं है। "अमृत के अधिकारी!" –कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है! बन्धुओ! उसी मधुर नाम से मुझे आपको पुकारने दो। 'ऐ अमृत के अधिकारीगण!' सचमुच ही हिन्दू तुम्हें पापी कहना अस्वीकार करता है। तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनंद के अधिकारी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर


११

  1. शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।
    आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
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    वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्।
    आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्॥
    तमेव विदित्वातिमृत्युमेति।
    नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥–श्वेताश्वतर उपनिषद्, २-५, ३-८