पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१८

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हिन्दू धर्म
 

देवता हो ! तुम पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही महा पाप है। विशुद्ध मानव आत्मा को तो यह मिथ्या कलंक लगाना है। उठो। आओ ! ऐ सिंहो? तुम भेड़ हो इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो। तुम तो जरा-मरण-रहित एवं निस्यानंदमय आत्मा हो। तुम जड़ पदार्थ नहीं हो। तुम शरीर नहीं हो । जड़ पदार्थ तो तुम्हारा गुलाम है, तुम उसके गुलाम नहीं।

वेद घोषणा करते हैं कि यह सृष्टि व्यापार अनेक भयावह, निर्दय अथवा निर्मम विधानों का प्रवाह नहीं है, और न यह कार्य- कारण का एक अच्छेय बन्धन ही है। वरन् वेद यही घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियम के मूल में, प्रत्येक अणु-परमाणु तथा शक्ति में ओतप्रोत वही एक पुराण पुरुष विराजमान हैं- 'जिनके आदेश से वायु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर इतस्ततः नाचती है । ' *

और उस पुरुष का स्वरूप क्या है ? वह सर्वव्यापी, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् है, सब पर उनकी पूर्ण दया है। " तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा है, तू ही सभी शक्तियों का मूल है। हमें शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करनेवाला है; हे प्रभो, मुझे इस छोटे से जीवन के.


  • भयादस्यानिस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।

भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥

-कठोपनिषद् , २।३।३
 
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