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हिन्दू धर्म
 

सर्वव्यापिन्व का क्या अर्थ समझते हैं ! वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र है। क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? अगर नहीं तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या विशाल भूमि-खण्ड की ही कल्पना हम अपने मन में लाते हैं। इससे अधिक और कुछ नहीं ।

हम यही देखते हैं कि हमारी मानसिक प्रकृति के नियमा-नुसार किसी न किसी कारण से हमारी अनन्तत्व की कल्पना नील आकाश या अपार समुद्र से सम्बद्ध हो जाती है; उसी तरह हम पवित्रता के भाव के अपने अपने स्वभाव'नुसार गिरजाघर, मसजिद या क्रँस से जोड़ देते हैं । हिन्दूलोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि अदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न देवभूतियों से जोड़ते हैं, पर अन्तर यही रहता है कि जहाँ कुछ लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उसमे आगे नहीं बढते, क्योंकि उनके लिये तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों के वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर ले और अपने मानव भइयों की भलाई करते रहें-वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या साक्षात्कार में केन्द्रीभूत हुआ करती है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार कर स्वयं ईश्वर बनना है। मूर्तियाँ,मन्दिर, गिरज वर या शस्त्र ग्रन्थ ये तो धर्म जीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र है; पर उसे तो उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिये।

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