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हिन्दू धर्म
 


ही यौवनादि का जन्मदाता है।" क्या किसी वृद्ध पुरुष का अपने मुँह से बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा?

इसके सिवाय मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का आवश्यक अंग भी तो नहीं है। केवल इतना ही कि अगर कोई मनुष्य अपने ब्रह्मभाव को मूर्ति के सहारे अधिक सरलता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह उस अवस्था के परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिए मूर्तिपूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य असत्य से सत्य को नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिन्दू के मतानुसार क्षुद्र अज्ञानी के धर्म से लेकर वेदान्त के अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं वे सभी अपने अपने जन्म तथा अवस्था-भेद के अनुसार उस अनन्त ब्रह्म के ज्ञान तथा उपलब्धि के उपाय हैं और ये उपाय उन्नति की सीढ़़ियाँ हैं। प्रत्येक जीव उस युवा गरुड़ पक्षी के समान है, जो धीरे धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्ति सम्पादन करता हुआ अन्त में उस प्रकाशमय सूर्य तक पहुँच जाता है।

विभिन्नता में एकता-यही प्रकृति की रचना है और हिन्दुओं ने इसे भलीभाँति पहिचाना है। अन्य धर्मों में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वे तो समाज के सामने केवल एक ही नाप की कमीज़ रख देते हैं, जो राम, श्याम, हरि सब के शरीर में

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