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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 


ज़बरदस्ती ठीक होनी चाहिये। और यदि वह कमीज़ राम या श्याम के शरीर में ठीक नहीं बैठती, तो उसे नंगे बदन-बिना कमीज़ के ही रहना होगा। हिन्दुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्म-तत्व की उपलब्धि, धारणा या प्रकाश केवल सापेक्ष के सहारे से ही हो सकता है। और मूर्तियाँ, क्रॉस या चाँद ये तो केवल आध्यात्मिक उन्नति के सहाय्यस्वरूप हैं। वे मानो बहुत सी खूटियाँ हैं, जिनमें धार्मिक भावनाएँ अटकाई जाती हैं। ऐसी बात नहीं है कि प्रत्येक के लिये इन साधनों की आवश्यकता हो, पर बहुतों के लिये तो यह आवश्यक हुआ ही करते हैं और जिनको अपने लिये इन साधनों की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती, उन्हें यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि इन साधनों का आश्रय लेना अनुचित है।

यहाँ एक बात बतला देना आवश्यक है कि भारतवर्ष में मूर्तिपूजा कोई भयोत्पादक विषय नहीं है, वह व्यभिचार की जननी नहीं है, वरन् वह तो असंस्कृत अनधिकारी मन के लिये उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य,हिन्दुओं के दोष हुआ करते हैं, उनमें कभी कभी अपवाद भी रहते हैं, पर यह ध्यान रखिये कि उससे वे सदा अपने ही शरीर को दण्ड देने के लिये तत्पर रहते हैं, न कि अन्य धर्मावलम्बियों का गला काटने के लिये। एक धर्मान्ध हिन्दू चाहे चिता पर अपने आप को जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिये अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं

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