पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/३२

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हिन्दू धर्म
 


करेगा, जैसा कि यूरोप में Inquisition के जमाने में ईसाइयों ने किया था। फिर भी इस बात के लिये उसका धर्म इससे अधिक दोषी नहीं समझा जा सकता, जितना कि डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है। यह तो उसकी व्यक्तिगत दुर्बलता है। तब तो हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्म भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों का विभिन्न अवस्थाओं तथा परिस्थितियों को पार करते हुये ईश्वरलाभ के उस एक उद्देश्य की ओर यात्रा करना अग्रसर होना मात्र है। प्रत्येक धर्म का लक्ष्य जड़भाव पन्न मानव में ब्रह्म का प्रकाश होना ही है और वही ब्रह्म इन सभीं का प्रेरक है। तो फिर ये धर्म रतने परस्पर विरोधी क्यों हैं? हिन्दुओं का कहना है कि ये 'बांध केवल आभास मात्र हैं,-वास्तविक नहीं। एक ही सत्य वस्तु भिन्न भिन्न अवस्थाओं तथा विभिन्न प्रकृति के अनुसार परस्पर विरुद्ध भाव धारण करती है।

ज्योति तो वही है, पर भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूपसे प्रकट होती है। और विभिन्न स्वभाव वाले लोगों के लिए उपयुक्त होने की दृष्टि से यह वैचित्र्य आवश्यक भी है; परन्तु सभी धर्मों में एक ही सत्य विराजमान है। कृष्णावतार में भवन् ने हिन्दुओं को यह उपदेश दिया है, "प्रत्येक धर्म में मैं, भौक्तिकमाल में सूत्र की तरह, पिरोया हुआ हूँ। जहाँ भी तुम्हें मानव सृष्टि को उन्नत बनाने वाली और पावन करनेवाली अत्युच्च पवित्रता और विशेष शक्ति दिखाई दे तो जान लो कि मैं ही वहाँ विराजमान

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