पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/३३

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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

हूँ।"[१] और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ है? सारे संसार के सामने मेरा यह दावा है कि संस्कृत-दर्शन-शास्त्र के समग्र ग्रंथों में कोई मुझे एक भी ऐसी उक्ति दिखा दे कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं। भगवान् कृष्ण द्वैपायन व्यास का वचन है, "हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व को पहुँचे हुये मनुष्य हैं।"[२]

हाँ एक बात और। ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू, अज्ञेयवादी बौद्धधर्म और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता है?

यद्यपि बौद्ध तथा जैनी ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म में प्रत्येक धर्म के केन्द्रस्थ "मनुष्य में देवत्व या ईश्वरत्व का विकास" इस महान् सत्य पर ही पूरा जोर दिया गया है। उन्होंने जगत्पिता जगदीश्वर को नहीं, पर उसके पुत्र स्वरूप आदर्श मनुष्य बुद्ध देव या 'जिन' को तो देखा है। और जिसने पुत्र को देख लिया उसने पिता को भी देख लिया।


  1. मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।
    xxx
    यद्यद्विभूतिमत् सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
    तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥

    —भगवद्गीता, १०।४१

  2. अन्तरा चापि तु तद् दृष्टेः।

    —वेदान्त सूत्र, ३।४।३६