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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 


है, दोनों महासागर उन्हीं में स्थित हैं, तथापि वह तो उस छोटे से जलाशय में ही वास करते हैं। जो कोई गगनमण्डल के उस पार भी उड़कर जाना चाहे तो वह वहाँ भी राजा वरुण के पंजे से नहीं बच सकता। उसके गुप्तचर आकाश से उतरकर संसार में सब ओर चुपके से विचरते रहते हैं और उनके सहस्र नेत्र, जो बहुत छानबीन करते हुये बारीकी से देखते रहते हैं, पृथ्वी की सुदूर सीमा तक अपनी निगाह फैलाये रहते हैं।"

उसी प्रकार हम और देवताओं के विषय में भी अनेक उदाहरण दे सकते हैं। वे सभी क्रमशः एक के बाद एक उसी प्रकार दिखाई देते हैं-वे प्रथम तो देवताओं के रूप में दिखते हैं और उसके बाद उनके विषय में यह विचार उपस्थित किया जाता है कि वे ऐसे 'पुरुष' हैं जिनमें सारा ब्रह्माण्ड अवस्थित है, जो प्रत्येक हृदय को देखनेवाले साक्षी हैं और जो विश्व के शासनकर्ता हैं। इस वरुण देव के सम्बन्ध में और भी एक भाव है, उस भाव का केवल अंकुर ही फूटा था कि आर्यों के मन ने उसे वहीं कुचल डाला और वह है भय का भाव। एक अन्य स्थान पर हम पढ़ते हैं कि उन्हें अपने किये हुए पाप के कारण भय लगता है और वे वरुण से क्षमा माँगते हैं। भारत में भय के भाव और पाप के भाव-इन दो भावों को बढ़ने नहीं दिया गया; इसका कारण आप बाद में समझ जाएंगे, तथापि इनके अंकुर तो फूटने को ही थे। इसी को-जैसा कि आप सब जानते हैं-एकेश्वरवाद कहते हैं। इस एकेश्वरवाद

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