पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

के साथ सोचते थे, यहाँ तक कि उनके विचार की एक चिनगारी मात्र से पश्चिम के साहसी कहलाने वाले तत्ववेत्ता डर जाते हैं इन तत्त्ववेत्ताओं के सम्बन्ध में प्रोफेसर मैक्समूलर ने यह ठीक ही कहा है कि ये लोग इतनी अधिक उँचाई तक चढे कि वहाँ उनके ही फेफड़े सांस ले सकते थे, दूसरों के फेफड़े तो इतनी उँचाई में फट गये होते। वे धीर पुरुष बुद्धि के पीछे-पीछे, जहाँ वह ले गई, वहीं चले । इस यात्रा में उन्होंने किसी भी प्रकार का त्याग शेष नहीं रखा, इसमें उनके अंधविश्वास के कितने बड़े बड़े विषय नष्ट भ्रष्ट हो गए । समाज उनके विषय में क्या सोचेगा, उन्हें क्या कहेगा, इन बातों की उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की उन्होंने तो केवल वही उपदेश दिये और वही बातें कहीं, जिन्हें उन्होंने ठीक और सच समझा।

प्राचीन वैदिक ऋषियों के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करने के पूर्व हम यहाँ पर वेदों में से एक दो विशिष्ट बातों का उल्लेख करेंगे । इन देवताओं की मानो क्रमशः एक के बाद दूसरे की बड़ाई की जाती है, प्रभुता बतलाई जाती है, और उनकी महिमा उस अनंत विश्वसंचालक 'ईश्वर' नामक व्यक्ति की पदवी तक बढ़ा दी जाती है। ऐसा क्यों किया जाता है इस शंका के समाधान की आवश्यकता है। प्रोफेसर मैक्समूलर इसके लिये एक नया अभिधान देते हैं; वे कहते हैं कि यह हिन्दुओं की विशेषता है;

३५