पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/४३

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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

किसी एक देवता की स्तुति की जाती है और कुछ समय तक यह कहा जाता है कि अन्य सब देवता केवल उसके आज्ञाकारी हैं और जिस देवता के वरुण द्वारा बढ़ाये जाने की बात कही गई है, वही देवता स्वयं ही दूसरे मण्डल में सर्वोच्च पद को पहुँच जाता है। बारी बारी से ये देवता ईश्वर नामक व्यक्ति के पद पर स्थापित हो जाते हैं।इसकी मीमांमा तो उसी ग्रन्थ में पाई जाती है-वह सचमुचक्षअद्भुतरम्य है-जो फिर भारत में उत्तर कालीन विचारों का विषय बन गई है और वही सारे संसार के धार्मिक क्षेत्र में आध्यात्मिक चिन्ता का विषय बनी रहेगी-और वह है " एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति ।"..- सत्ता एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। इन सभी स्तोत्रों में जहाँ इन देवताओं की महिमा गाई गई है, उसी एक परम पुरुष का दर्शन होता है, भेद तो दर्शन करने वालों ने ही माना है। स्तोत्रगायक, ऋषि और कवि जो भिन्न भिन्न भाषा और भिन्न भिन्न शब्दों में महिमा गाते हैं, उसी एक परम पुरुष की स्तुति करते हैं। "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति"-सत्ता एक ही है, ऋषियों ने उसके भिन्न भिन्न नाम दिये हैं। इस एक मंत्र पर से बहुत से महत्वपूर्ण परिणाम निकले हैं। सम्भवतःआप लोगों में से कुछ को तो यह सुनकर आश्चर्य होता होगा कि भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ विधर्मियों पर अत्याचार कभी नहीं हुआ है और जहाँ किसी भी मनुष्य को उसके धार्मिक विश्वास के कारण तंग नहीं किया गया है। आस्तिक, नास्तिक अद्वैतवादी,

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