पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/४८

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हिन्दू धर्म
 

"उस समय न कोई सत् था, न कोई असत्, न वायु थी, न आकाश, न, अन्य कुछ ही-यह सब किससे ढका था ? सब किसके आधार पर था ? तब मृत्यु नहीं थी, न अमरस्व ही और न रात्रि और दिन का परिवर्तन ही था।" * अनुवाद करने से कविता का अधिकांश सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। तब न तो मृत्यु थी, न अमरस्व, न रात्रि और दिन का परिवर्तन ही-"न मृत्युरासीत् अमृतं न तर्हि न रात्र्या अन आसीप्रकेतः” इन संस्कृत शब्दों की ध्वनि ही कैसी संगीतमयी है। "वहसत्ता, वह प्राण ही मानो आवरण के रूप में ईश्वर को ढके हुए था और उसका चलायमान होना प्रारम्भ नहीं हुआ था।"

इस विचार को स्मरण रखना ठीक होगा कि वह सत्ता अस्तित्व में थी, क्रियारहित थी; क्योंकि आगे चलकर हम देखेंगे कि सृष्टिसर्ग के सम्बन्ध में इस विचार का किस प्रकार विकास हुआ है, और हम यह भी देखेंगे कि हिन्दू तत्वज्ञान और दर्शनशास्त्र के अनुसार यह सम्पूर्ण विश्व किस प्रकार मानो क्रियाशील स्पंदनों की समष्टि है और कई समय ऐसे हुआ करते हैं कि जब यह समस्त क्रिया शान्त हो


  • नासदासीत्रो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।

किमावरीव:कुह कस्य शर्मन् अंभः किमासीत् गहनं गभीरम्॥

न मृत्युरासीत् अमृतं न तर्हि, न राव्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

-नासदीय सूक्त

+ आनीदवातं स्वधया तदेकं, तस्माद्धन्यन परः किञ्चनास।

-नासदीय सूक्त

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