पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/५०

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हिन्दू धर्म
 

सृष्टि का कारण 'इच्छा' बताई गई है। जो पहिले सत् था अर्थात् जिसका केवल अस्तित्व मात्र ही था, वही ' इन्छा ' में परिणत हो गया और वह इच्छा आकांक्षा के रूप में प्रकट होने लगी। यह हमें स्मरण रखना चाहिये। क्योंकि हम देखते हैं कि यह आकांक्षा ही सारी सृष्टि का कारण बतलायी गई है। यह इच्छा' ही बौद्ध और वेदान्त-दर्शन में अत्यन्त महत्त्व की कल्पना है और यही आगे चलकर जर्मन दर्शन-शास्त्र में भी प्रविष्ट हो, शोपनहावर के दर्शन की भित्ति स्वरूप पाई जाती है। सर्व- प्रथम उसके विषय में हम यह सुनते हैं:--

"अब पहले इच्छा की उत्पत्ति हुई, जो मन का अव्यक्त बीज है। ऋषि लोगों ने अपने हृदय में प्रज्ञा द्वारा खोजते खोजते सत् और असत् के बीच के सम्बन्ध का पता लगाया।"* यह बहुत विचित्र वर्णन है । ऋषि तो अन्त में यही कहता है कि "सो अंग वेद यदि वा न वेद"-कदाचित् वह (ईश्वर) भी इसे नहीं जानता । कवित्व की दृष्टि से जो गुण हैं, उन्हें अलग रखते हुये। हम इस सूक्त में यह पाते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध का प्रश्न बहुत तीव्र और स्पष्ट रूप धारण कर चुका था और ऋषियों के मन ऐसी अवस्था तक पहुँच चुके थे, जब कि उनका हर तरह के साधारण उत्तरों से समाधान नहीं हो सकता था। हम यह


  • कामस्तदग्रे समवर्तताधि, मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्।

सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा||

-नासदीय सूक्त

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