पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/५१

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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

देखते हैं कि सृष्टिबाह्य ' जगन्नियन्ता' की कल्पना से भी उन्हें कोई सन्तोष न था। कई अन्य सूक्तों में भी इस सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही विचार पाया जाता है। और जैसा हम पहले देख चुके हैं, जब कि वे विश्व के एक नियन्ता, ईश्वररूपी एक व्यक्ति के शोध करने का प्रयत्न कर रहे थे,एक के बाद दूसरे देवता को लेकर उसे उस पद तक पहुँचाते थे,उसी तरह अब हम यह देखते हैं कि भिन्न भिन्न स्तोत्रों में एक या दूसरी कल्पना उठायी जाती है और उसी का अनंत विस्तार किया जाता है और उसे विश्व की सभी वस्तुओं की उत्पत्ति का कारण बताया जाता है ।एक विशेष सत्ता की कल्पना आधार के रूप में की जाती है जिसमें सभी वस्तुओं की गति-स्थिति है और जो स्वयं ही, यह सब वस्तुएँ बन गई है। उसी प्रकार क्रमशः भिन्न भिन्न कल्पनाओं के सम्बन्ध में इसी विधि का प्रयोग किया गया। प्राण रूपी जीवन-तत्व की कल्पना का विस्तार कर उसे विश्वव्यापी और अनंत बना डाला। वही प्राण-तत्व है,जो समस्त विश्व की विधृति का कारण है। वह केवल मानव शरीर को ही धारण नहीं करता, बरिक वही सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश भी है, वही प्रत्येक वस्तु को चलाने वाली शक्ति है, वही विश्व-संचालिनी शक्ति है। इनमें से कई वर्णन तो बड़े सुंदर, बड़े काव्यमय हैं। उदाहरणार्य " वही सुंदर प्रभात का उदय करता है " -यह वर्णन काव्यमय रम्य चित्र अंकित करता है।

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