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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

एक व्यक्ति के सम्बन्ध में जो विश्व का नियन्ता है-शिक्षा मिल सकती थी; वे बाह्य प्रकृति से अधिक और कुछ नहीं सीख सकते थे।संक्षेप में, बाह्य विश्व से तो हमें एक शिल्पी की कल्पना प्राप्त होती है, जिसे 'दैवी योजना के अनुसार निर्माण' ( Design theory)का सिद्धान्त कहते हैं।

जैसा कि हम सब जानते हैं, यह सिद्धान्त कुछ विशेष तर्कसंगत नहीं है। इसमें कुछ अबोधता का आभास है,तथापि बाह्य जगत् पर से तो हम परमेश्वर के सम्बन्ध में जो कुछ थोड़ा सा जान सकते हैं, वह इतना ही है कि इस जगत् का बनाने वाला कोई होना चाहिये। पर सृष्टिविषयक समस्या इससे हल नहीं होती। इस विश्वरचना की सामग्री या उपादान ईश्वर के पूर्व था तथा सृजन के लिए उस ईश्वर को इस उपादान की आवश्यकता थी। इस कल्पना में सब से अधिक आपत्तिजनक बात तो यह है कि ईश्वर इस उपादान कारण से मर्यादित हो जाता है, क्योंकि इस उपादान की मर्यादा के भीतर ही वह कार्य कर सकता है। कारीगर सामग्रियों के बिना मकान नहीं बना सकता;अतः वह उस सामग्री की मर्यादा से मर्यादित है। जिस वस्तु को बनाने योग्य सामग्री उसके पास है, वही तो वह बना सकता है।अतः'दैवी योजना के अनुसार निर्माण के सिद्धान्त से जो ईश्वर हमें प्राप्त होता है, वह तो अधिक से अधिक एक कारीगर मात्र है,एक समर्याद कारीगर मात्र है। वह तो उपादान-परतंत्र तथा

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