पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/५७

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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

उसके द्वारा उन्होंने यह सीखा कि विषय-भोग की इच्छाओं,सकाम कर्म की कामनाओं तथा धर्म के बाह्य आडम्बरों ने उनके और सत्य के बीच में आवरण डाल दिया है। और यह पर्दा किसी कर्मानुष्ठान द्वारा हटाया नहीं जा सकता। तब तो उनको अपने ही मन की ओर लौटना पड़ा और अपने में सत्य की खोज करने के लिये अपने मन का ही विश्लेषण करना पड़ा। बाह्य जगत् ने धोखा दिया और वे अन्तर्जगत् की ओर झुके और तभी वेदान्त का सच्चा तस्वज्ञान उत्पन्न हुआ। यहीं से वेदान्त तत्वज्ञान का आरम्भ होता है।वेदान्त दर्शन-शास्त्र की यही नींव है। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं वैसे वैसे हम देखते हैं कि उसका सम्पूर्ण अनुसन्धान अन्तर्जगत्में है। बिल्कुल प्रारम्भ से ही वे यह घोषित करते से दीखते हैं कि-सत्य को किसी धर्म में मत खोजो, वह तो यहीं-मनुष्य की आत्मा में ही है; यह आत्मा ही आश्चर्यों का आश्चर्य है, उसी आत्मा में समस्त ज्ञान का भाण्डार है और सम्पूर्ण सत्ता की खानि भी वही है,-उसी में खोजो। जो यहाँ नहीं है, वह वहाँ ( बाह्य जगत् में )हो ही नहीं सकता। एक के बाद एक क्रमशः उन्होंने यही ढूंढ निकाला कि जो कुछ बाहर है, वह भीतरी वस्तु का, अधिक से अधिक कहा जाय तो, केवल अस्पष्ट प्रतिबिंब मात्र है। हम यह देखेंगे कि किस प्रकार ईश्वर सम्बन्धी उस पुरानी कल्पना को,विश्व के नियामक को, विश्व के बाहर रहने वाले को मानो पकड़कर वे उसे पहिले विश्व के भीतर ले आये। वह ईश्वर बाहर नहीं है,

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