पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/६८

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हिन्दू धर्म
 

बहुतेरे अन्य प्रयोग किये और जैसा कि सर्वविदित है, अन्य सक जातियों के समान, वे भी पहले बहिर्जगत् के रहस्य के अन्वेपण में लग गये। अपनी विशाल प्रतिभा से वह महान् जाति, प्रयत्न करने पर, उस दिशा में ऐसे अद्भुत आविष्कार कर दिखाती, जैसे कि समस्त संसार ने अभी तक स्वप्न में भी नहीं देखे हैं; पर इस पथ को उन्होंने, किसी उच्चतर ध्येय की प्राप्ति के लिये छोड़ दिया। वेद के पृष्ठों से उसी महान् ध्येय की प्रतिध्वनि सुनाई देती है-“सा परा यया तदक्षरमधिगम्यते।" वही परा विद्या है जिससे हमें वह आविनाशी परम पुरुप प्राप्त होता है। इसी परिवर्तनशील, नश्वर प्रकृति सम्बन्धी विद्या, इसी मृत्यु, दुःख तथा शोकपूर्ण जगत का विज्ञान एक बहुत बड़ा शास्त्र भले ही हो; परन्तु जो अपरिणामी एवं आनन्दमय है, जो चिर शान्ति का आकर है, जो अनन्त जीवन तथा पूर्णत्व का एक मात्र आश्रय-स्थान है, एक मात्र जहाँ ही सब दुःखों का उपशम हो जाता है, उसी ईश्वर से सम्बन्ध रखने वाली विद्या हमारे पूर्वजों की राय में सबसे अधिक महत्व की थी। हमारे पूर्व पुरुष यदि चाहते, तो ऐसे विज्ञानों का अन्वेषण सहज ही कर सकते थे, जो हमें केवल अन्न, वस्त्र और अपने साथियों पर आधि-पत्य दे सकते हैं, जो हमें केवल दूसरों पर विजय प्राप्त करना, उन पर राज्य करना एवं शक्तिमान पुरुषों को निर्बलों पर अधिकार चलाना सिखाते हैं। पर उस परमेश्वर की अपार दया से हमारे पूर्वजों का ध्यान उससे विपरीत दिशा की विद्या की ओर आकृष्ट

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