पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/७३

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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

भी विश्वास नहीं करते कि इसी जगत् के साथ शून्य से जीवात्मा की भी सृष्टि हुई है। मेरा ख्याल है कि इस विषय में भी सब हिन्दू एकमत होंगे। हमारा विश्वास है कि प्रकृति अनादि और अनन्त है- हाँ, कल्पान्त में यह स्थूल बाह्य जगत् सूक्ष्मता को प्राप्त होता है। फिर कुछ काल तक उस सूक्ष्मावस्था में रहकर पुनः बाहर आता और प्रकृति नामक इस अनन्त जगत-प्रपञ्च को प्रकट करता है। और यह तरङ्गाकार गति अनन्त काल से--जब स्वयं काल का ही आरम्भ नहीं हुआ था तभी से चल रही है, और अनन्त काल तक चलती रहेगी।

एक बात और है। हिन्दू-मात्र का विश्वास है कि यह स्थूल जड़ शरीर, अथवा इसके भीतर रहनेवाला मन नामक सूक्ष्म शरीर भी वास्तव में मनुष्य नहीं.---'मनुष्य' इन सब से भी बहुत ऊँचा और श्रेष्ठ है। कारण, स्थूल शरीर परिणामी है, और मन का भी वही हाल है; परन्तु इन सबसे परे आत्मा नामक जो अनिर्वचनीय वस्तु है, उसका न आदि है न अन्त। मैं आस्मा' शब्द का अँगरेजी में अनुवाद नहीं कर सकता। इसके लिये अँगरेजी में, आप चहे जो शब्द कहें, ग़लत होगा। हाँ, तो आत्मा 'मृत्यु' नामक अवस्था से परिचित नहीं। इसके सिवाय एक और खास बात है,जिसमें हमारे साथ और और जातियों का मतभेद है। वह यह है कि आत्मा एक देह का अन्त होने पर दूसरी देह धारण करती है।ऐसा करते करते वह एक ऐसी अवस्था में पहुँचती है, जब उसे

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