पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/७४

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हिन्दू धर्म
 

फिर शरीर धारण करने की कोई भी आवश्यकता नहीं रह जाती, या उसे वैसा करने की इच्छा ही नहीं होती। तब वह मुक्त हो जाती है। फिर कभी जन्म नहीं लेती। हमारा मतलब अपने शाखों के पुनर्जन्म-वाद और आत्मा के नित्यत्व-वाद से है। हम चाहे जिस सम्प्रदाय के हों, पर इस विषय में हम सभी एकमत हैं। इस आत्मा-परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में हमारे भिन-भिन्न मत हों तो हों। एक सम्प्रदाय आत्मा को परमात्मा से सदा अलग मान सकता है, दूसरे के मत से आत्मा उसी अनन्त अग्नि की एक चिनगारी हो सकती है, और किसी तीसरे सम्प्रदाय के मतानुसार आत्मा और परमात्मा में कोई भेद ही न हो-ऐसा भी हो सकता है। हम आस्मा व परमात्मा के इस सम्बन्ध के विषय में चाहे जैसा अर्थ क्यों न निकालें, चाहे जैसी व्याख्या क्यों न करें, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। जब तक हम इस मूलतत्व को मानते हैं कि आस्मा अनन्त है, उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, और इसलिए उसका कभी नाश भी नहीं हो सकता, उसे भिन्न-भिन्न शरीरों से क्रमशः उन्नति करते-करते अन्त में मनुष्य-शरीर धारणकर पूर्णत्व प्राप्त करना होगा-तब तक हम सभी एकमत हैं।

अब मैं प्राच्य और पाश्चात्य भावों में सर्वाधिक भेद-जनक,और धर्मराज्य के सबसे बड़े तथा अपूर्व आविष्कार की बात बताऊँगा आप लोगों में कुछ लोग शायद ऐसे होंगे, जो पाश्चात्य विचारों का अध्ययन करते हों। उन्हें सम्भवतः यह बात पहले ही सूझी होगी

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