सम्प्रदायों के लोग—वे उदार हों या कट्टर, पुरानी लकीर के फकीर हों या नई रोशनीवाले—सभी सम्मिलित होंगे। पर सबसे बढ़कर एक बात और है, जिसे सदा याद रखना परम आवश्यक है। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हम लोग उस परमावश्यक विषय को कभी कभी भूल जाते हैं। वह बात यह है कि हमारे भारतवर्ष में धर्म का मतलब है 'प्रत्यक्ष अनुभूति'। यदि यह न हो, तो फिर 'धर्म' वास्तव में 'धर्म' कहलाने योग्य न रहे। हमें कोई यह बात सिखाने का अधिकार नहीं है कि जब तुम इस मत को स्वीकार करोगे, तभी तुम्हारा उद्धार होगा। कारण, हम इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम अपने को जैसा बतलाओगे, अपने को जैसे साँचे में ढालोगे, वैसे ही बनोगे। तुम जो कुछ हो, जैसे हो, ईश्वर की कृपा और अपनी चेष्टा से वैसे ही बने हो, अतएव, किसी मतविशेष पर विश्वास करने से तुम्हारा कोई विशेष उपकार नहीं होगा। "अनुभूति"—यह महती शक्तिमयी वाणी भारत के ही आध्यात्मिक गगनमण्डल से आविर्भूत हुई है, और एकमात्र हमारे ही शास्त्रों ने बार बार कहा है—"ईश्वर के दर्शन करने होंगे।" यह बात बड़े साहस की है, इसमें सन्देह नहीं; पर साथ ही यह अक्षरशः सत्य भी है। धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति करनी होगी, केवल सुनने से काम न चलेगा—तोते की तरह कुछ थोड़े से शब्द और धर्म-विषयक बातें रट लेने से भी काम न चलेगा, सिर्फ बुद्धि द्वारा स्वीकार कर लेने से भी काम न चलेगा—आवश्यकता है हमारे अन्दर धर्म के प्रवेश करने की।
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