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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

का अनुकरण करोगे, तभी तुम अपनी स्वाधीनता गँवा बैठोगे। यहाँ तक कि आध्यात्मिक विषय में भी यदि तुम दूसरों के आज्ञाधीन हो कार्य करोगे तो केवल अपनी चिन्ता-शक्ति ही नहीं, सारी शक्तियाँ भी गँवा बैठोगे।

तुम्हारे अन्दर जो कुछ है, अपनी शक्तियों द्वारा उनका विकास करो, पर किसी दूसरे का अनुकरण करके नहीं। हाँ, दूसरों के पास अगर कुछ अच्छाई हो, तो उसे ग्रहण कर लो। औरों के पास से तो हमें कुछ सीखना ही होगा। मिट्टी में बीज बोने पर जल, मिट्टी और हवा आदि से रस संग्रह करके वह बीज क्रमशः एक विशाल वृक्ष बन जाता है। जल, वायु और मिट्टी आदि से रस संग्रह करके भी वह वृक्ष का ही रूप धारण करता है, मिट्टी या जल के ढेर का नहीं। जैसे वह बीज मिट्टी और जल आदि से रस के रूप में आवश्यक सारांश खींचकर अपनी प्रकृति के अनुसार एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, वैसे ही औरों से उत्तम बातें सीख कर वृक्षवत् उन्नत बनो। जो सीखना नहीं चाहता, वह तो पहले ही मर चुका है। महर्षि मनु ने कहा है—

"श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्म स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥"

—'नीच व्यक्ति की सेवा करके भी उससे श्रेष्ठ विद्या सीखने का प्रयत्न करो। चाण्डाल द्वारा भी श्रेष्ठ धर्म की शिक्षा ग्रहण करो' इत्यादि।

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