पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/८८

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हिन्दू धर्म
 


औरों के पास जो कुछ भी अच्छा पाओ, सीख लो; पर उसे स्वयं के भाव के साँचे में ढाल लेना होगा–दूसरे की शिक्षा ग्रहण करते समय उसके ऐसे अनुगामी न बनो कि अपनी स्वतन्त्रता गँवा बैठो। भारत के इस जातीय जीवन को भूल मत जाना–पल भर के लिये भी यह न सोचना कि भारतवर्ष के सभी अधिवासी अगर अमुक जाति की वेश-भूषा धारण कर लेते, या अमुक जाति के आचार-व्यवहारादि के अनुयायी बन जाते, तो बड़ा अच्छा होता। केवल कुछ ही वर्षों का अभ्यास छोड़ देना कितना कठिन होता है, यह तुम भली भाँति जानते हो। ईश्वर ही जानता है कि कितने सहस्र वर्षों से यह प्रबल जातीय जीवन-स्रोत एक विशेष दिशा की ओर प्रवाहित हो रहा है; ईश्वर ही जानता है कि तुम्हारे रक्त के अन्दर कितने सहस्र वर्षों का संस्कार जमा हुआ है। और क्या आप यह कह सकते हैं कि वह प्रबल धारा जो प्रायः अपने समुद्र के समीप पहुँच चुकी है, पुनः उलटकर हिमालय के बरफीले स्थान को वापस जा सकती है? यह असम्भव है। यदि ऐसी चेष्टा करोगे, तो स्वयं ही नष्ट हो जाओगे। अतएव, इस जातीय जीवन-स्रोत को पूर्ववत् प्रवाहित होने दो। हाँ, जो बाँध इसके रास्ते में रुकावट डाल रहे हैं, उन्हें काट दो, इसका रास्ता साफ करके प्रवाह को मुक्त कर दो; तभी यह जातीय जीवन-स्रोत अपनी स्वाभाविक गति से प्रवाहित होकर आगे बढ़ेगा–तभी यह जाति अपनी सर्वाङ्गीण उन्नति करते करते अपने चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होगी।

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