पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/८९

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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 


भाइयों! भारत की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में मैंने उपर्युक्त बातें कही हैं। इनके सिवा और भी बहुतेरी बड़ी-बड़ी समस्याएँ हैं, जिनकी आलोचना समयाभाव से आज मैं नहीं करता। उदाहरण के लिये जाति-भेद-सम्बन्धी अद्भुत समस्या को ही ले लीजिये। मैं जीवन भर इस समस्या पर ही हरएक पहलू से विचार करता हूँ। भारत के प्रायः सभी जातियों के लोगों से मिलकर मैंने इस समस्या के हल करने की चर्चा की है, और अभी तक कर रहा हूँ। पर जितना ही अधिक इस विषय पर मैं विचार करता हूँ उतनी ही अधिक कठिनाइयाँ मेरे सामने आ रही हैं, और इसके उद्देश्य तथा तात्पर्य के विषय में उतना ही अधिक मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होता जा रहा हूँ। अन्त में अब मेरी आँखों के आगे एक क्षीण आलोक-रेखा सी दिखाई देने लगी है। इधर कुछ दिनों से इसका मूल उद्देश्य कुछ-कुछ मेरी समझ में आने लगा है। इसके बाद फिर खान-पान की समस्या भी बड़ी विषम है। वास्तव में यह एक बड़ी जटिल समस्या है। साधारणतः हम लोग इसे जितना अनावश्यक समझते हैं, सच पूछो तो यह उतना अनावश्यक नहीं है। मैं तो अब इस सिद्धान्त पर आ पहुँचा हूँ कि आजकल खान-पान के बारे में हम लोग जिस बात पर ज़ोर देते हैं, वह एक बड़ी विचित्र बात है–वह शास्त्रानुमोदित प्रथा नहीं है। अर्थात् खान-पान में वास्तविक पवित्रता की अवहेलना कर हम लोग कष्ट पा रहे हैं–शास्त्रानुमोदित भोजन-प्रथा को एकदम भूल गये हैं।

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