पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/९१

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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

होती है, उसी प्रकार भारतवर्ष में धर्म को सुलभ बनाना होगा।

इसी प्रकार भारत में कार्य करना होगा; पर छोटी-मोटी दलबन्दियों या सम्प्रदायों द्वारा नहीं। कार्य-प्रणाली के विषय में अभी मैं आपको इतना ही इशारा कर सकता हूँ कि जिन विषयों में हम सब का एक मत है, उनका प्रचार किया जाय, फिर तो जिन विषयों में मत-भेद हैं, वे आप ही आप दूर हो जायेंगे। मैंने भारतवासियों से बार बार कहा है और अब भी कह रहा हूँ कि घर में यदि सैकड़ों वर्षों से अन्धकार फैला हुआ है, तो क्या ‘घोर अन्धकार!’ ‘भयंकर अन्धकार!!’ कहकर चिल्लाने से अन्धकार दूर हो जायगा? नहीं; रोशनी जला दो, फिर देखो कि अँँधेरा आप ही आप दूर हो जाता है या नहीं। मनुष्य के संस्कार का यही रहस्य है। मनुष्यों के हृदय में उच्चतर विषय और भावों का समावेश करो―पहले ही किसी पर अविश्वास करके कार्यक्षेत्र में मत उतरो। मनुष्य पर―बुरे से बुरे मनुष्य पर भी―विश्वास करके मैं कभी विफल नहीं हुआ हूँ। सब जगह मुझे इच्छित फल ही प्राप्त हुआ है– सर्वत्र सफलता ही मिली है। अतएव, मनुष्य पर विश्वास करो―चाहे वह पण्डित हो या घोर मर्ख, साक्षात् देवता जान पड़े या मूर्तिमान शैतान; पर मनुष्य पर अवश्य विश्वास करो। तदुपरान्त यह समझने की चेष्टा करो कि उसमें किसी प्रकार असम्पूर्णता है या नहीं। यदि वह कोई गलती करे, अत्यन्त घृणित और असार मत ग्रहण करे, तो भी यही समझो कि वह अपने असली स्वभाव के कारण नहीं,

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