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[कबीर की साखी
 


विशेष—गोविन्द के गुणों का गान करना जीवन का परम पुण्य है। कबीर ने विगत साखियों में सततरूप से सचेत होकर साधन में रत रहने का उपदेश दिया है। कवि कभी कहता है 'जाका वासा गोर मैं सो क्यूँ सोवै सुक्ख', और कभी वह कहता है 'एक दिन' भी सोवणा लबे पाव पसारि।' उसी विचार परम्परा में वह कवि पुनः यहाँ पर कहता है कि 'तेरे सिर परि जम खड़ा खरच करे का खाइ।' (२) 'खरच करे का खाइ' में कवि ने महाजन और कर्जदार का रूपक प्रस्तुत किया है। (३) इसी प्रकार का भाव कबीर ने एक अन्य साखी में व्यक्त किया है 'काल सिहणौं यो खड़ा जागि पियारे म्यंत' तथा 'काल खड़ा सिर ऊपरैं ज्यूं तोरणि आया वीदं (काल-कौ अंग)। (४) सत्य यह है कि 'जाका वासा गोर में, सो क्यूं सोवै सुक्ख।' (५) प्रस्तुत साखी में अशिक्षित कबीर की अप्रस्तुत योजना की यथार्थता तथा सहजता दर्शनीय है।

शब्दार्थ—गाइ = गा = गान कर। परि = पर। जम = यम। खरचा = खर्च व्यय करे। खाइ = खाया है।

कबीर सूता क्या करैं, सूताँ होइ अकाज।
ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुण्त काल की गाज॥१५॥

सन्दर्भ—काल का नाम सुनते ही जगत नियंता ब्रह्मा तक विचलित हो उठे इतना जानते रहने पर भी मानव ब्रह्म की आराधना से विमुख होकर भी अज्ञान निद्रा में गाफिल पड़ा रहता है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं कि हे प्राणी। तू सोता हुआ क्या कर रहा है। सोते रहने से बड़ा अहित होता है। काल की गर्जना सुनकर ब्रह्मा का आसन विचलित हो गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने काल को प्रबलता और मानव की निष्क्रियता का उल्लेख बड़ी सहज शैली में किया है। (२) मानव काल की प्रबलता से परिचित होने पर भी ब्रह्मनाथ की साधन से विमुख रहता है और अज्ञान निशा में सुषुप्त रहता है। (३) इसीलिए कवि ने पीछे कहा है कि "भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुःख अपार। (४) प्रस्तुत साखी में कवि ने नाम महिमा के साथ ही साथ काल की प्रबलता तथा मृत्यु की अनिवार्य स्थिति का उल्लेख किया है।

शब्दार्थ—सुता = सुप्त। अकाज = अहित। आसण = आसन। खिस्या = खिसका, सरका। सुणत = सुनत, सुनते हो। गाज = गर्जन।

केसौ कहि कहि कूकिये, ना सौइयै असरार।
रात दिवस कैं कृकणों, (मन) कबहूँ लागै पुकार॥१६॥