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[कबीर की साखी
 

ठीक ही कहा है कि ‘ गिरु तो नाही ठाम । (२) "कबीरॱॱॱॱ नाम से तात्पयं है कि हरि नाम स्म्र्र्ग मे बहुत सो कठिनाइयॉ है। काम,क्रोध,मद, मोह, लोभ आदि शत्रु आव्रमर्ग करते है और मन विश्वासघात करता है माया आनी ओर आक्र्शित करती है यही साघन के मार्ग मे कठिनाईयॉ है।

शब्दार्थ — सुमिरता = स्मरन करने मे। सूली=शूली। ठाम=स्थान।

कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत।
हरि सागर जिनि बीसरै, छीलर देखी अन्ंत ॥ ३०॥

सन्दर्भ — प्रस्तुत साखी मे कबीर ने राम नाम से अनुराग उत्पन्न करने जप की साधना मे अनुरक्त रहने तथा सांसारिक स्वादों का परित्याग करके हरि राम से प्रेम करने और उसे जिबभा पर धारण करने का उपदेश दिया है। इसी साखी के उतरार्घ मे कवि ने हरि सागर की उपेक्षा करके लौकिक छीलरो से अनुराग करने वालो को चेतावनी भी दी है।

विशेष—(१)'कबीर ॱॱॱ लै' के द्वारा कबीर ने वारम्बार उसी भाव की अभीव्यक्ति की है, जिसका उल्लेख काव्य में प्रस्तुत 'अंग' मे वारम्बार किया है। राम नाम की महत्त्व का उल्लेख करते हुए कबीर ने अनेक बार कहा 'कबीर आपरग राम कहि, और राम कहाइ' तथा ‘ कबीर ने उनेक बार कहा ' कबीर आप्रग राम कहि ,और राम कहाइ' तथा ' कबीर निरभौ राम जपि , जव लग दोवे वाती।, (२) "जीब्या सो करिजजग्यत से ताप्च्ये है कि जीहा के साथ मोत्री करले। यह जीहा जो भैतरीक और लोवीक रसो और स्वादो मै अनुरुत है, ऊस पर आधेकारी तथा सयम स्थापीत करले। यह जीहा जो रसो के पान करने मे अनुरुत है। उसे हरे रस को पान करने मै अनुरस्त करेल।"; (३) 'हरि सगर से तात्पर्य है की वह रुपी सागर । अघाद, अन्त तथा पार होता है, उसी प्रकार हरी या ब्रह्म अन्न्त, अगाध तथा अप्राद है। (४) छ्लर दखी दन्न्त ' तातपर्य है अनेक पोखरे। पोखरे या छीलर प्रयोग यहा पर लोविक या । भौतिक प्रलोभ्नो के लीए वीया गया है तात्पर्य है की लोविक प्रलोभनों के लीए कीया गया है त्तवर्य है की लोविक प्रालोभनो मै प्लवर अलौकिक तत्व को नहि भुलना चाहीए।

शब्दार्थ—व्याह=ध्यान वाले जिभ्या=जिह्वा मंत= मंत्री जिनीमत वीर थे मुल पोलर पोयरे तालाब

कबीर राम रिझाऊं ले, सुख अमृत गुण गाइ।
फूटा नग व्यूं जोड़ी मन संगे संग भलाई।।३६||