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विरह कौ अंग]
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आफ़ दिसोल" अर्थात् आत्मा की अन्धकारपूर्ण रात्रि" का प्रयोग (२) "अन्तर प्रजल्या" से तात्पर्य है अन्तस प्रज्वलित हो गया। विरह पुंज के प्रकट होने पर अन्तस प्रज्वलित हो गया। जो अन्तस वासनाओं का केन्द्र स्थल बना हुआ था, वह विरहाग्नि के प्रज्वलित होने पर अब प्रज्वलित हो उठा।

शब्दार्थ—रात्यूं = रात में। रूनी = रोई। बचौं = कूं = को। कुंज प्रजल्या = प्रज्वलित हुआ। प्रगट्या = प्रकट हुआ। पुंज = घनीभूत।

अंबर कुंजा कुरलियां, गरजि भरे सत्र ताल।
जिनि थैं गोविन्द वीछुटे, तिनके कौंण हवाल॥२॥

सन्दर्भ—आकाश क्रौंच पक्षी के आतं क्रन्दन से परिपूरित हो उठा। फलतः जलद का अन्तस आर्द्र हो उठा और उसके रूदन से जलाशय ओत-प्रोत हो उठे। परन्तु जो प्राणी गोविन्द से विमुख हैं, उनके प्रति कौन संवेदनशील होगा।

भावार्थ—क्रौंच पक्षी ने आकाश में आर्त क्रन्दन किया जिससे आर्द्र होकर घनश्याम ने सरोवरों को जल से ओत-प्रोत कर दिया। परन्तु जो गोविन्द अर्थात् भगवान से विमुख है, उनकी तथा दशा होगी। भगवान से वियुक्त उन प्राणियों पर कौन कृपा भाव प्रदर्शित करेगा।

शब्दार्थ—अम्बर = आकाश। कुंजा = क्रौंच। गरजि = गर्जन करके। पै = से। वीछुटे = विछुड़े = वियुक्त। कौण = कौन। हवाल = हाल।

चकवी बिछुटी रैणी की, आइ मिलि परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूं, ते दिन मिले न राति॥३॥

सन्दर्भ— चकवी रात्रि के अभिशप्त क्षणों में अभिशाप वश प्रिय से वियुक्त हो गई, परन्तु सूर्य की किरणों के आलोकमय वातावरण में वह अपने प्रिय से पुनः मिल गई। परन्तु माया के प्रभाव से परम पिता से वियुक्त प्राणी परम प्रिय से कभी नहीं मिल पाती है।

भावार्थ—रात्रि को बिछुड़ी हुई चाकवी, प्रनात के क्षणों में प्रियतम से पुनः मिल गई। परन्तु माया के प्रभाव से भगवान के सम्पर्क से पृथक प्राणी ब्रह्म की शरण में कभी नहीं पहुँच पाता है।

शब्दार्थ—रैणि = रैन = रात्रि। परभाति = प्रभाव। विछूडे़ = विछड़े, वियुक्त। राति = रात = रात्रि।

वासर सुख नाँ रैन सुख, ना सुख सुपिनै माहि।
कबीर बिछुढ्या राम सूँ, नौ सुख धूप न छाँह॥४॥