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[कबीर को साखी
 


सन्दर्भ—राम से वियुक्त प्राणी को कभी किसी दशा या परिस्थिति में में सुख नही प्राप्त होता है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं कि राम से वियुक्त प्राणी को न रात में सुख है, न दिन में; न वह स्वप्न में शान्ति प्राप्त करते हैं न जाग्रतावस्था में। धूप अथवा छाह में भी वह शान्ति नहीं प्राप्त कर पाता है। तात्पर्य यह है कि ब्रह्म की शरण ही समस्त सुख है। वही सुख निधान है, वही शान्ति-निकेतन है।

शब्दार्थ—बासर = बासर = दिवस। रैन = रात्रि। सुपिनै = स्वप्न में।

विरहिन ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझे धाइ।
एक सवद कहि पीव का, कवर मिलैंगे आइ॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में विरहिणी की व्यग्रता, अधीरता, मानसिक व्यथा को व्यक्त किया गया है।

भावार्थ—विरहिणी मार्ग पर खड़ी पथिकों से पूछ रही है कि प्रिय का समाचार बताइए। वे कब आकर मिलेंगे, अनुग्रहीत करेंगे।

शब्दार्थ— ऊभी = खड़ी। सिरि = सिरे पर। बूझे = पूँछे। घाइ= = दौड़ कर। कबर = कबरे, अरे कब।

बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम।
जिब तरसैं तुझ मिलन कूँ, माने नांही विश्राम॥

सन्दर्भ— प्रस्तुत साखी में आत्मा रूपी विरहिणी की विरह भावना बड़े मार्मिक शब्दों में व्यक्त हुई है।

भावार्थ— हे राम! हे प्रिय! बहुत काल से अर्थात् जाने कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूँ, तुम्हारी प्रतीक्षा में अनुरक्त हूँ। तुमसे एकात्मकता संस्थापित करने के लिए मेरा जी व्यग्र है और मन में शांति नहीं है।

शब्दार्थ—जोवती = जोहती = प्रतीक्षा करती। वाट = मार्ग। जिव = जी, प्राण। विश्राम = शान्ति।

बिरहिन ऊठै भी पडै, दरसन कारनि राम।
मृवां पीछे देहुगे सो दरसन किहि काम॥७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में विरहिनी की कृशावस्था, और विरह के दुषप्रभाव का चित्रण किये गये हैं।

भावार्थ—हे राम! विरहिनी तुम्हारे दर्शन के लिए उठते हैं और पुनः गिर पड़ती है। यदि मृत्यु के अनन्तर तुम्हारे दर्शन हुए भी तो किस काम के उससे क्या लाभ होगा।